बुधवार, 24 सितंबर 2008

नशे की लत एचआईवी की बढ़ती वजह


सारी दुनिया में दिन- प्रति दिन सुई के जरिए नशीले पदार्थ लेने वालों लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है। एचआईवी संक्रमण की दर उन लोगों के बीच बढ़ रही है जो सुई के ज़रिए नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में क़रीब 30 लाख ऐसे लोग एचआईवी से संक्रमित हो सकते हैं जो सुइयों के ज़रिए नशीले पदार्थ लेते हैं। नेपाल, इंडोनेशिया, थाईलैंड, बर्मा, यूक्रेन, कीनिया, ब्राजील, अर्जेंटीना और एस्तोनिया में तो नशीले पदार्थों के सेवन के आदी 40 प्रतिशत लोग एचआईवी से ग्रस्त आने वाले सालों में यह स्थिति और भयावह हो सकती है। शोधार्थियों को अफ़्रीका से कोई आकडें नहीं मिल पायें हैं, इस पर विशेषज्ञों ने चिंता जताई है और कहा है कि जिन वजहों से एचआईवी का संक्रमण इस तेज़ी से फैला है उसके स्पष्ट संकेत इस महाद्वीप में भी पाये गए हैं। उन्होंने कहा है कि इस समस्या की ओर गंभीरता पूर्वक ध्यान देने की ज़रुरत है। इस शोध में भाग लेने वाले ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने एचआईवी संक्रमण से प्रभावित लोगों से संबंधित आँकड़ों का गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार सुई के ज़रिए नशीले पदार्थ लेने वालों और उनके बीच एचआईवी के संक्रमण दोनों में ही वृद्धि हो रही है। सुई के साझे इस्तेमाल की वजह से एचआईवी का वायरस मुख्य रूप से फैलता है। हालांकि कुछ देश एचआईवी से संक्रमित लोगों की दर को कम रखने में सफल रहे हैं। ब्रिटेन में 2.3 प्रतिशत तथा न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत लोग जो सुई के जरिए नशीले पदार्थ लेते हैं, एचआईवी से संक्रमित हैं। शोधार्थियों का कहना है कि 1980 के दशक में इन देशों में तेज़ी से 'नीडल एक्सचेंज प्रोग्राम' को लागू करने के कारण एचआईवी के दर को कम करने मे सफलता मिली। 'नीडल एक्सचेंज प्रोग्राम' के तहत सुई के ज़रिए नशीले पदार्थ लेने वालों को इस्तेमाल की गई सुई के बदले साफ़ सुथरी सुई दी जाती है। रिपोर्ट का कहना है कि एचआईवी संक्रमण को रोकने के लिए 'नीडल एक्सचेंज प्रोग्राम' और नशीले पदार्थ लेने से रोकने के लिए अन्य कार्यक्रम लागू करने की ज़रुरत है। लेकिन नशे जद में जकडे ये लोग वास्तव में किसी भी कार्यक्रम या योजना का लाभ नहीं उठा पातें हैं। इनसाईट स्टोरी ने एसे कई लोगों से बातचीत की हर एक का मानना है की नशे की आदत बन जाने के बाद ये मालूम ही नहीं चलता है की हम क्या कर रहे हैं, नशे की तड़प मनुष्य की भला बुरा सोचने की सामर्थ्य को क्षीण कर देती है।
(आशुतोष पाण्डेय)
सम्पादक
सहयोग
(अंजू )
सहसंपादक

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

कैसे बना था ब्रह्माण्ड

कैसे बना था ब्रह्माण्ड? क्या हुआ था सुदूर अंतरिक्ष में लाखों साल पूर्व हुए उस जबरदस्त धमाके 'बिग बैंग' के बाद? ऐसे तमाम प्रश्नों का हल वैज्ञानिक अब तक के सबसे बड़े परीक्षण में खोजने जा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग से पृथ्वी के विनाश की तमाम अटकलों को सिरे से खारिज किया है।
अपने आप में अनोखे इस प्रयोग को स्विटजरलैंड और फ्रांस की सीमा पर 85 देशों के करीब 2500 वैज्ञानिक अंजाम देंगे। इसमें जमीन के 80 मीटर अंदर 27 किलोमीटर लंबे एक सुरंग में 'लार्ज हेड्रोन कोलाइडर' [एलएचसी] मशीन के जरिए ठीक वैसी परिस्थितियां पैदा की जाएंगी जैसी 'बिग बैंग' के एक नैनो सेकेंड बाद हुई थीं। एलएचसी को जिनेवा स्थित यूरोपियन सेंटर फार न्यूक्लियर रिसर्च [सीईआरएन] ने तैयार किया है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस प्रयोग से ब्रह्मांड की उत्पत्तिके रहस्यों पर से पर्दा उठ सकेगा। इस पूरी परियोजना पर कुल 9.2 अरब डालर [4.1 खरब रुपये] का खर्च आने की उम्मीद है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस प्रयोग से वे ब्रह्मांड के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले 'डार्क मैटर' व 'हिग्स बोसोन' संबंधित जानकारियां जुटा सकेंगे। 1964 में स्काटलैंड के वैज्ञानिक पीटर हिग्स ने इन कणों की खोज की थी। इन कणों से बने पदार्थ ने ही ब्रह्मांड के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई। कुछ लोगों का कहना है कि इस परीक्षण से धरती ब्लैक होल में समा सकती है। हालांकि इस प्रयोग से जुड़े वैज्ञानिकों ने इन आशंकाओं को निराधार बताया है। उनका कहना है कि इस प्रयोग से बनने वाले ब्लैक होल्स से किसी तरह का कोई खतरा नहीं होगा। अभियान से जुड़े भारतीय वैज्ञानिक वाईपी वियोगी के मुताबिक एलएचसी से धरती के नष्ट होने का कोई खतरा नहीं है। यदि ऐसा कुछ होता तो वैज्ञानिक इस प्रयोग का जोखिम नहीं उठाते। ब्रह्मांड की उत्पत्तिलगभग 14 अरब वर्ष पहले हुई जिसमें धरती की उम्र करीब साढ़े चार अरब वर्ष मानी जाती है। तब से लेकर अब तक ब्रह्मांड में न जाने कितनी घटनाएं हुई लेकिन धरती के अस्तित्व पर कभी कोई संकट नहीं आया।
एक अन्य भारतीय वैज्ञानिक अमिताभ पांडे के अनुसार ब्रह्मांड में उच्च ऊर्जा वाले प्रोटान आपस में टकराते हैं जबकि परीक्षण में उनकी तुलना में काफी कम ऊर्जा वाले प्रोटानों की टक्कर कराई जाएगी। प्रयोग का उद्देश्य यह पता लगाना है कि ब्रह्मांड का निर्माण करने वाला पदार्थ कैसे अस्तित्व में आया।
स्विट्जरलैंड और फ्रांस की सीमा पर होने जा रहे अभूतपूर्व परीक्षण पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। इस अभियान से भारत के भी तीस वैज्ञानिक जुड़े हैं। भारतीय समयानुसार दोपहर 12 बजकर 30 मिनट पर जब यह परीक्षण होगा राजस्थान यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दंपति सुधीर और रश्मि रनिवाल की निगाहें भी उस पर लगी होंगी। दोनों ही इस अभियान में शामिल हैं। सुधीर ने बताया कि हमने लार्ज हेड्रोन कोलाइडर [एलएचसी] के अंदर लगने वाली प्रोटोन मल्टीपलसिटी डिटेक्टर [पीएमडी] नामक युक्ति डिजाइन की है। यह प्रोटोंस को त्वरित करने का काम करेगी। सुधीर ने कहा कि इस परीक्षण से क्वार्क-ग्लूआन प्लाज्मा [डार्क मैटर] को पैदा करने का प्रयास किया जाएगा जो ब्रह्मांड की उत्पत्तिके समय मौजूद था।
परीक्षण से जुड़े एक अन्य भारतीय वैज्ञानिक वाईपी वियोगी इससे धरती के नष्ट होने का कोई खतरा नहीं मानते। इस अभियान में भारतीय वैज्ञानिक अमिताभ पांडे भी शामिल हैं।

आशुतोष पाण्डेय
संपादक

सोमवार, 8 सितंबर 2008

भोजन और प्रजनन के लिए जिम्मेदार जीन

अमरीका के शोधार्थियों ने एक ऐसे जीन की खोज की है जो भूख और प्रजनन क्षमता को नियंत्रित करता है। यह जीन (टीओआरसी-1) मास्टर स्विच की तरह काम करता हुआ प्रतीत होता है जो भूख को नियंत्रित कर भोजन को पेट में जाने से रोकता है और गर्भधारण की अनुमति देता है। शोधार्थियों का कहना है कि यह जीन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उस समय किसी महिला को गर्भधारण नहीं करने देता जब उसके शरीर में भोजन की कमी होती है। नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार जिन मादा चूहों में यह जीन नहीं था उनका वजन अधिक पाया गया और वो बच्चे भी पैदा नहीं कर पाईं।
कम वजन वाली और कुछ अतिरिक्त वजन वाली महिलाओं को प्रजनन क्षमता संबंधी समस्याएं हो सकती हैं और केलीफ़ोर्निया के सैल्क इंस्टीट्यूट का यह शोध संकेत देता है कि टीओआरसी-1 इन दोनों मामलों में अपनी भूमिका निभाता है।
शोधार्थियों के अनुसार साधारण स्थितियों में जबकि पर्याप्त भोजन किया जाता है, तब चर्बी की कोशिकाएं एक हॉर्मोन बनाती हैं जिसे लेप्टिन कहते हैं। यह हॉर्मोन भूख को घटाने और प्रजनन क्षमता को सुचारु करने वाले जीन टीओआरसी-1 को चालू कर देता है। खाद्य पदार्थों की कमी के समय लेप्टिन की कमी से टीओआरसी-1 काम नहीं करता और भूख की देखभाल न करने के साथ गर्भधारण को भी रोकता है।
शोधार्थियों का मानना है कि यह भुखमरी और अकाल के वक्त होने वाला एक अनोखा फ़ायदा है।
उनका मानना है कि इस जीन की संख्या में अतिरिक्त वृद्धि भी मोटापे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसे में पहले ही काफ़ी मात्रा में भोजन किये जा चुकने पर भी यह भोजन बंद करने का संकेत नहीं देता है । उन्होंने कहा कि अगर यह जीन पीढ़ी दर पीढ़ी जाता रहे तो यह मोटापे की वंशानुगत समस्या का कारक बन जाता है। इस जीन के सही प्रकार से काम न करने से प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है और यह गर्भधारण की अनुमति नहीं देता। इसकी जाँच करने के लिए वैज्ञानिकों ने बिना टीओआरसी-1 वाले चूहों का प्रजनन कराया जिनका वजन मात्र आठ सप्ताहों के बाद ही बढ़ने लगा और दोनों ही लिंगों की प्रजनन क्षमता नकारात्मक रही। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले प्रोफ़ेसर मार्क मोंटमिनी ने कहा कि टीओआरसी-1 ने दवाओं के लिए अच्छा रास्ता दिखा दिया है।
आशुतोष पाण्डेय
संपादक

सोमवार, 1 सितंबर 2008

अपने आने वाले बच्चे का ख्याल रखें

अगर आप गर्भवती हैं तो परफ़्यूम या ख़ुशबूदार क्रीम का प्रयोग करना आपके पैदा होने वाले बच्चे के विकास के लिए ख़तरनाक हो सकता है। एडिनबरा विश्विद्यालय के एक शोध के मुताबिक ऐसे कॉस्मेटिक्स के प्रयोग से पैदा होने वाले बच्चे की प्रजनन क्षमता पर भविष्य में नकारात्मक असर पड़ सकता है। एडिनबरा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने दावा किया है कि गर्भावस्था के आठवें और 12वें हफ़्ते के दौरान बच्चे के भविष्य की प्रजनन संबंधी समस्याओं का निर्धारण होता है।
उनके अनुसार गर्भावस्था के वक्त कॉस्मेटिक्स में पाए जाने वाले रसायनों की गंध भविष्य में बच्चे के शरीर में शुक्राणुओं के उत्पादन को प्रभावित कर सकती है।
खैर उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि हालाँकि इस बात को पुख्ता करने के लिए उनको अब तक अंतिम सबूत नहीं मिले हैं। शोधार्थियों की इस टीम का नेतृत्व एडिनबरा स्थित मेडिकल रिसर्च काउंसिल के ह्यूमन रिप्रोडक्टिव साइंस यूनिट के प्रोफ़ेसर रिचर्ड शार्प ने किया।
चूहों पर इसका परीक्षण करने के दौरान उन्होंने एंड्रोजन्स की कार्रवाई रोक दी जिसमें टेस्टेस्टेरॉन जैसे हॉरमोन शामिल होते हैं। इस परीक्षण ने यह निश्चित कर दिया कि अगर हॉरमोन का निकलना रोक दिया जाए तो पशु प्रजनन क्षमता की समस्याओं का सामना करते हैं। और कॉस्मेटिक्स, कुछ कपड़ों और प्लास्टिक बनाने में कुछ ऐसे रसायनों का प्रयोग किया जाता है जो हॉरमोनों का निकलना बंद कर देते हैं। जिससे प्रजनन क्षमता प्रभावित हो सकती है। प्रोफ़ेसर शार्प कहते हैं कि यह रसायन पैदा होने वाले लड़कों के भविष्य में प्रजनन संबंधी दूसरी अवस्थाएं विकसित होने का ख़तरा भी बढ़ाते हैं, जिसमें टेस्टेकुलर कैंसर भी शामिल है। उन्होंने कहा कि जो महिलाएं गर्भधारण करने की योजना बना रही हैं उन्हें अपनी त्वचा पर कोई भी कॉस्मेटिक का प्रयोग करने से बचना चाहिए क्योंकि उनका शरीर सोख लेता इसे सोख लेता है। अगर आप गर्भधारण करने के बारे में सोच रही हैं तो आपको अपने जीने का तरीकों को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। इन चीज़ों का प्रयोग करने का अर्थ निश्चित रूप से यही नहीं है कि आप अपने बच्चे को नुकसान पहुँचाएंगी ही लेकिन इनसे बचाव करने से निश्चित रूप से आपको सकारात्मक असर मिलेगा।
प्रो० शार्प के अनुसार, "हमारी सलाह है कि आप रसायनों वाले कॉस्मेटिक्स के इस्तेमाल से बचें। ऐसी कोई भी सामग्री जिसे आप अपनी त्वचा पर लगाएंगी, आपकी त्वचा से होते हुए आपके विकसित हो रहे बच्चे तक ज़रूर पहुँचेगी।"

(आशुतोष पाण्डेय)
सम्पादक