शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

अन्ना की मुहिम: उत्तराखंड में बीजेपी के खिलाफ

आखिरकार अन्ना और लोकपाल का तमाशा कहीं पहुँच नहीं पाया, ना ही सरकार और ना विपक्ष इसके लिए गंभीर था. एक सोची समझी साजिश की तरह ये सब किया गया. अन्ना को देखिये! जब पता चला की अब संसद में लोकपाल पिट जाएगा तो, आन्दोलन वापस ले लिया. वैसे भी इस बार अन्ना की जमात उनके लिए भीड़ नहीं जुटा पाई थी, जिसके चलते अन्ना को अहसास हो गया था की "काठ की हंडिया बार-बार चूल्हे पर नहीं चढती है" और एक ड्रामे के साथ आन्दोलन वापस ले लिया. ये वो ही अन्ना हैं जो कुछ दिनों पहले तक जनलोकपाल के लागू ना हो जाने तक आन्दोलन की चेतावनी दे चुके थे. अब क्या करें पांच राज्यों में चुनाव होने हैं? अन्ना टीम जिस गुप्त मिशन पर थी उसका ठीकरा अब कहीं उसी के सर ना फूटे बस इसी डर से ऐन वक्त आन्दोलन को वापस ले लिया. अब अन्ना कह रहें हैं की वे सरकार के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगें, वैसे उनके समर्थक अभी तक कर क्या रहे थे, किसी की समझ में नहीं आया. बस अन्ना को एक चुनावी आइकन बनना था वे बन गए. कुछ देर तक अपनी टीम के कुछ लोगों की लिप्सा के शिकार बने और बी जे पी के एजेंट.
खैर अब बात हो जाए अन्ना के चुनाव प्रचार की क्या अन्ना का विषवमन चुनावी गणित को बदलेगा? शुरूआत  कर रहें हैं उत्तराखंड से... यहाँ ७० विधान सभा सीटों के लिए चुनाव होने हैं और बीजेपी की सरकार काबिज है. जब हम मतदाता से लोकपाल के बारे में बात करतें हैं तो ८५ फीसदी लोग इसे वोट देने के लिए कोई ख़ास मुद्दा नहीं मानतें हैं. यहाँ भाजपा पहले ही लोकपाल को लागू कर चुकी है... और इसका खामियाजा भी जनता भुगतने लगी है, जो काम आम तौर पर अफसरशाही द्वारा आसानी से कर दिए जाते थे अब लोकपाल की डर से नहीं किये जा रहें हैं, सब कुछ दुरस्त करने के बाद ही फ़ाइल निपटाई जायेगी ये कह कर अफसर अपना पल्ला झाड रहें हैं, और आये दिन अन्ना के समर्थकों के द्वारा आफिस में काम काज का लेखा जोखा मांगें जाने से भी कई फाइलें प्रोसेस नहीं हो पा रहीं हैं. ऐसी स्थिति में अन्ना की मुहिम यहाँ काबिज बीजेपी सरकार के खिलाफ जा रही है. कई अधिकारी भी सरकार के खिलाफ अपनी भड़ास निकालने के लिए इस अचूक अस्त्र का इस्तेमाल कर सरकार के खिलाफ माहौल बना रहें हैं. कहा जा रहा है की नियमों को तांक पर रख कोई काम करेंगें तो लोकपाल द्वारा धर लिए जायेंगें. इसके बाद अन्ना यहाँ चुनाव प्रचार के लिए आयेंगें तो क्या होगा, ये एक सवाल है? वैसे अन्ना को अब चाहिए की जनता को गुमराह करना बंद करें और अपने एन जी ओ को चलायें, कुछ संसद विरोधी ताकतें उन्हें जरूर फायनेंस कर देंगीं.

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

उत्तराखंड के चुनाव: असमंजस


जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें उत्तराखंड भी एक है, नये परिसीमन के तहत पहली बार विधान सभा चुनाव होंगें. इस बार के चुनाव कई मायनों में काफी दिलचस्प हो सकते हैं, वर्तमान में उत्तराखंड क्रांति दल और कुछ निर्दलियों के सहयोग से यहाँ भाजपा सत्ता सीन है लेकिन पिछले पाँच सालों में तीन तीन मुख्यमंत्रियों के हाथ में सत्ता देने के बाद भी भाजपा के लिए इन चुनावों की डगर आसान नहीं दिख रही है, दूसरी प्रमुख पार्टी कांग्रेस को देखें तो लगता है उसका बियावान भी उजड़ा ही है, अब ना तो कांग्रेस के पास नारायण दत्त तिवारी जैसा कोई चमत्कारी नेता है और ना ही लोकप्रियता. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भीतरघात की शिकार भी हैं. भाजपा जहाँ विकास के बजाय विनाश करने वाली पार्टी के रूप में यहाँ अपनी छवि बना पायी है, इसी बात को लेकर आम कार्यकर्ता काफी गुस्से में है. वैसे लोकपाल का बिल पास करवा मुख्यमंत्री खंडूरी कुछ आस लगा बैठे थे लेकिन नौकरशाहों के हाथ इस क़ानून की धज्जियां उड़ाने का पूरा इंतजाम किया जा चुका है, सरकार के इस फैसले से नौकरशाह खासे खफा दिख रहें हैं और इन चुनावों में कर्मचारी और अधिकारी वर्ग का गुस्सा सरकार को झेलना पड़ सकता है. कांग्रेस जहां एक और केंद्र में अब तक की सबसे अलोकप्रिय सरकार का दंश झेल रही है वहीं प्रदेश में नेतृत्व विहीनता के कारण एक निर्जीव दल के रूप में ही दिख रही है. अब एक नजर उत्तराखंड में इन चुनावों में भारी फेरबदल करने वाली बसपा की और, बसपा अपना ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा रही है उसे देख लगता है की इन चुनावों के परिणामों के बाद सरकार के समीकरण बनाने और बिगाड़ने में बसपा मुख्य भूमिका में रहेगी.
अब बड़ा सवाल ये है चुनावों की इस वैतरणी में किसकी नैया पार लगेगी और किसकी डूब जायेगी? इस फैसले में अभी समय बाकी जब तक सभी दल अपने उम्मीदवार घोषित नहीं कर देते, कोई कयास लगना संभव नहीं है. एक मुद्दा जो इस बार काफी अहम हो सकता है वो क्षेत्रवाद का होगा, भाजपा के द्वारा गढ़वाल के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जाना, कुमाऊं की जनता को नागवार गुजर रहा है, भले ही कोई खुल कर इसके लिए सामने ना भी आये तो अन्दरखाने लामबंदी चल रही है. इससे पहले उत्तराखंड में ये देखने में नहीं आता था लेकिन इस बार सरकार की तुष्टिकरण की नीतियों के गलत संयोजन से ये स्थिति पैदा हुयी है. इसके अलावा पिछड़े वर्ग के वोटों का खुला ध्रुवीकरण बसपा की ओर दिख रहा है. उत्तराखंड क्रांतिदल जैसे छोटे दलों को इस बार हाशिये में ही रहना पड़ सकता है.
इनसाईट स्टोरी आपको लगातार जोड़ें रखेगी उत्तराखंड और अन्य राज्यों की चुनावी सरगर्मियों से. हमारी टीम विधानसभा स्तर पर चुनावी समीकरणों का आकलन कर रही है, आकलन के साथ सान्खिकीय विश्लेषण भी आपको मिलेंगें. अन्ना की मुहिम का उत्तराखंड के चुनावों पर क्या असर होगा आप पढेंगें कल...     
(इनसाईट स्टोरी टीम उत्तराखंड)