शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

जीवन के रंग

आज दुनिया जिस रफ्तार से दौड़ रही है उसे देखकर तो अहसास होता है कि इंसान कितना प्रगतिशील हो गया है. वहीं अगर उसकी कुंठा की रफ्तार देखें तो वह तो और भी तेज नजर आती है. सब कुछ जल्द पा लेने की इच्छा ने उसे मशीन बना डाला है. संवेदना और सहानुभूति जैसे शब्द आज सिर्फ किताबी लफ्ज़ लगतें हैं. हम ऐसे क्यों हो गएँ हैं? ये सवाल शायद ही कोई खुद से पूछता हो. जिंन्दगी का हर पहलू स्वार्थ से शुरू हो स्वार्थ पर ही सिमट कर रह जाता है. आज लम्बे अंतराल के बाद कुछ लिखने का दिल हो रहा है. पिछले कुछ दिनों में कई मिले-जुले अहसास हुए हैं. अपनों की गैरत, परायों की कुंठा सब देखने को मिला. मेरे एक पड़ोसी को इस बात को लेकर परेशानी थी की में अपनी पत्नी के साथ बैठकर खाना खाता हूँ. पता नहीं इस में बुरा क्या था? पर जय हो उनकी, मुझे बार-बार उनकी कुंठा अपनी पत्नी के भरपूर प्यार का अहसास दिलाती है. काश उनके के घर में भी ऐसा होता. मैंने अक्सर देखा की उस घर में पत्नी एक विकल्प की तलाश में रहती शायद वो उब चुकी होगी उन जनाब से, वो जनाब भी तो मौका मिलते ही आखें सेकने का कोई मौक़ा खोते ही नहीं हैं. उनकी भी जय हो. जय हो उन सबकी. भगवान् से इस बार उनके लिए सदमति की मांग नहीं कर रहा हूँ, वो ऐसे ही बने रहें कम से कम उनकी कुंठा और हश्र देख मैं तो संभल जाऊं. जीवन के रंग
आशुतोष पाण्डेय