सोमवार, 20 जून 2011

इक्कीस वीं सदी का अंध विश्वास

२१वीं सदी और अंधविश्वास एक और माडर्न होने का दावा वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों की गिरफ्त. हम कहाँ हैं ये  सवाल एक यक्ष प्रश्न है, आज हम ऐसे ही एक अंधविश्वास से आपको दो चार करवा रहें हैं, उत्तराखंड में एक देव पूजन की विधि है "जागर" यह जागरण का ही एक रूप है जिसमें देवी देवताओं का आवाह्न किया जाता था, किसी भी शुभ अवसर पर इष्ट देव या ग्राम देव को पूजने की एक प्रथा थी, इसका उल्लेख कहीं न कहीं वैदिक साहित्य और अन्य अभिलेखों में मिलता है. लम्बे समय तक इसका स्वरुप इसी प्रकार का बना रहा लेकिन समय के साथ इसके रूप में परिवर्तन किया हुआ और इसे कई अंधविश्वासों के साथ जोड़ दिया गया, पूजा के साथ बलि और अन्य तमाम विधानों को जोड़ कर इसे पेट भरने और लोगों को भरमाने का जरिया बना दिया गया, आप आज उत्तराखंड के गाँव या कस्बों में ये खुले आम देख सकतें हैं की किस प्रकार कुछ लोग लोगों को भ्रमित कर अपना उल्लू सीधा कर रहें हैं. ये लोग चावल देख भूत काल की ५ पीढी से पहले की ऐसी घटनाएँ बताते हैं, जिन के बारे में इस पीढी को कुछ भी पता नही होता है, अधिकतर ये घटना किसी स्त्री के साथ हुए अन्याय से जुडी होती हैं. पांच पीढी या उससे पहले की घटनाओ को इतने सही तरीके के साथ प्रस्तुत किया जाता है की आम आदमी इस पर अनायास ही विश्वास कर लेता है, इसके बाद एक सिलसिला शुरू होता है पूजा पाठ और बलि का, इसमें "अहंकार पूजन", "रोष पूजन", "मृत आत्माओं का अवतार", "उनकी तृप्ति", मृत और अतृप्त आत्माओं की मंदिर बना स्थापना तक करवा दी जाती है. अक्सर देखा गया है की कोई परिवार एक बार इस में फंस जाय तो उसका निकलना मुश्किल ही होता है और आगे फंसता ही जाता है. एक बार पूजा करवाने के बाद फिर कह  दिया जाता है की पूजा में गड़बड़ हो गयी है, इन गड़बड़ियों की बानगी देखिये जैसे पूजा में काले मुर्गे की जगह सफ़ेद मुर्गा इस्तेमाल होना था, या फिर किसी के मन में कोई खोट था, या फिर पूजा जहां देनी थी, वहाँ नहीं दी गयी. लेकिन समाज इस जंजाल में इतनी बुरी तरह फंसा है की वो कोई सवाल पूछता ही नहीं है, जब पूजा करवाई जा रही थी तो आपके कहे अनुसार किया था तो गलत कैसे हो गया? अब ज़रा आपको इन पूजाओं  के सभी चरणों के बारे में बताएं सबसे पहले किसी चावल देखने वाले (जिसे पुछार या पुछयार कहतें हैं) के पास चावल लेकर जाना होता है, इसके बाद चावल देखकर उक्त व्यक्ति कोई भूत काल की कहानी सुनाता है जैसे आपकी पांच या सात पीढी पहले की कोई स्त्री की आत्मा भटक रही है जिसके साथ आपके पूर्वजों ने अन्याय किया था .इस पर विश्वास करना आसान भी हो जाता है क्योंकि कुछ समय पहले तक यहाँ बहु-विवाह प्रथा के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं. इसके बाद ये पुछ्यार करार रखने को कहते हैं और बताते हैं की ६ महीनों में इसकी पूजा करवानी होगी, छः माह के भीतर जागर लगानी होती है इस जागर में एक नाचने वाले और एक हुडका (उत्तराखंड का एक डमरू जैसा वाद्य) बजाने वाला (डंगरिया) आकर जागर लगाता है, इस प्रकार नाचने वाले व्यक्ति के शरीर में देवता का अवतार होता है और वो बताता है की किसी स्त्री के साथ जमीन, जायजाद, नपुंसकता, अंतिम संस्कार ना करने या फिर दूसरी शादी करने के कारण जो अन्याय  हुआ है उसी की बद दुआ के कारण उक्त स्त्री प्रेत रूप में भटक रही है यदि इसका इलाज नहीं किया गया तो परिवार के ऊपर विनाश का पहाड़ टूट जाएगा. फिर परिवार के लोग इसका निवारण पूछते हैं तो सभी को एक ही निवारण बताया जाता है जैसे, वो हरिद्वार जाकर इसका क्रिया कर्म करें फिर घर लौट कर जागर लगायें, और पूजा में इस आत्मा की तृप्ति के लिए  बकरे की बलि देने को कहा जाता है, इसके बाद एक साल के अन्दर अन्य कई पूजा करवाने को कहा जाता है, एक बार की इस पूजा का खर्च लगभग १० से ५० हजार तक आ जाता है. इतना सब करने के बाद कहा जाता है पिछली पूजा में कोई विधान गलत करवा दिया गया था, फिर से पूजा करवानी पड़ेगी. इस प्रकार ये अंत हीन सिलसिला चलता ही रहता है. इस प्रकार कई परिवार बर्बाद हो गए हैं, और कुछ लोगों का धंधा चल निकला है और सभ्यता और आधुनिकता का दावा करने वाला नवयुवा भी इसकी गिरफ्त में है, असल में उसे अनिष्ट की आशंका से इतना डरा दिया जाता है की वो अपना सब कुछ लुटाने को तैयार हो जाता है, जब हमने लोगों से उनके विचार जानना चाहे तो जो जवाब मिले वो लाजवाब थे, हमारा सवाल था की कैसे मान लेतें हैं कि ये सब सच है जवाब सुनिए कई चावल देखने वालों ने एक ही बात बतायी की किसी महिला के साथ हमारे पूर्वजों ने अन्याय किया था (वास्तव में सभी चावल देखने वाले एक ही बात बताते हैं, आप खुद इनके पास जाकर देख लें). दूसरा सवाल था कि ये पूजा गलत कैसे हुयी और उक्त आत्मा तृप्त क्यों नहीं हुयी? इसका भी उत्तर करीब करीब सामान मिला पूजा के किसी विधान को नही किया गया, या जैसा करना था वैसा नहीं हुआ. अब क्या करेंगे? इसका जवाब मिलता है फिर पूजा करनी है पिछली बार से इस बार बड़ी होगी. बलि की बात पर भी वो लोग अडिग दिखते हैं. लेकिन जब ये पूछा जाता है कि किसी की जान लेकर कैसे आप अपना भला कर लेंगें इस का कोई जवाब किसी के पास नहीं होता है. अब क्या इस समाज को सभ्य कहा जा सकता है. हम आत्मा या उसके अस्तित्व पर कोई बहस नहीं छेड़ना चाहतें हैं. आज वैज्ञानिक भी इसके स्वरुप को मान रहें हैं और सापेक्षिता के सिदधांत को देखें तो इनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता है, दुनिया की पुरातन संस्कृति से लेकर आज का विज्ञान भी इसे जब स्वीकार कर रहा है तो इसके लिए कसौटी क्या हो ये सवाल अहम् हैं और दूसरा सवाल इस प्रकार लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का है. अभी एक आत्मा की शांति के लिए ना जाने कितने जीवों की बलि दी जायेगी. क्या ये हो सकता है की एक जान लेकर कोई आत्मा शांत हो जाय? ये प्रश्न हम अपने सभी समाज के लिए छोड़ रहें हैं. 
(आशुतोष पाण्डेय और इनसाईट स्टोरी टीम ) 

मुंबई पुलिस की कहानी

इस देश की पुलिस कारगुजारियों की एक मिशाल देखिये, महाराष्ट्र पुलिस के दाउद के अँगुलियों की छाप मौजूद नहीं हैं, जबकि ये शातिर अपराधी कई बार मुंबई पुलिस की गिरफ्त में आ चुका है. ये पुलिस की किस छवि को दिखाता है. मिड डे के रिपोर्टर की ह्त्या में दाउद का हाथ होने की खबर के बाद एक बार फिर पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियां दाउद के रिकार्ड खगालने में जुट गयी हैं. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के महानिदेशक एनके त्रिपाठी के अनुसार दाउद कई बार मुंबई पुलिस की गिरफ्त में रहा है, लेकिन उसके पास दाउद के फिंगर प्रिंट उपलब्ध नहीं हैं. अगर दाउद के फिंगर प्रिंट लिए गए होते तो आज उसके खिलाफ कार्रवाई करने में सहूलियत होती, एन के त्रिपाठी का ये खुलासा चौंका देने वाला तो है ही साथ ही पुलिस की छवि पर भी सवाल उठा रहें हैं. ये एक दाउद का ही मामला नहीं है बल्कि ऐसे हजारों मामले इस देश की पुलिस से जुड़े हैं जहां ये अपराधियों की सहायता करते नजर आते हैं. अब देखना ये है मुंबई पुलिस इस बारे में क्या सफाई पेश करती है, या फिर गृह मंत्रालय और सुरक्षा एजेंसिया क्या रूख अख्तियार करती हैं?
(आशुतोष पाण्डेय)