रविवार, 24 जुलाई 2011

इंजीनियरिंग कालेजों का काला सच

देश में जहां आई आई टी की गुणवत्ता पर लगातार सवाल उठ रहें हैं वहीं दूसरी ओर प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों की भरमार देखने को मिल रही है, जब आई आई टी अपनी गुणवत्ता के मानक पर खरी नहीं उतर रही है तो इन इंजीनियरिंग कालेजों का क्या कहना? एक समय महानगरों तक सीमित ये प्राइवेट कालेज शहरों और कस्बों तक में खुल चुके हैं. विज्ञापन में सबसे उत्कृष्ट होने का दावा करने वाले कालेजों के पास एसी क्लास रूम और वाई फाई कनेक्टिविटी भले ही हो लेकिन अगर शैक्षणिक माहौल की बात करें तो ये शिफर नजर आतें हैं, इन कालेजों में लैब का तो सर्वथा अभाव ही दिखता है. तो फिर कैसे चल रहें हैं ये कालेज? दरअसल इन कालेजों में एडमिशन लेने वाले काफी बाद की रैंकिंग वाले वो छात्र हैं जो सरकारी कालेजों में प्रवेश नहीं ले पाए और वे इसे आशीर्वाद मान लेतें हैं. मनचाही फीस वसूलने वाले इन संस्थानों में फैकल्टी की भारी कमी है, और यू जी सी के मानकों को तांक पर रख मात्र बी. टेक.या एम. टेक योग्यता वाले अध्यापक इनका काम चला रहें हैं. इसके अलावा कुछ विजिटिंग फैकल्टी के नाम पर ये छात्रों को बेवकूफ बना ही लेते हैं और ये विजिटिंग भी महज साल में एक या दो क्लास ही लेतीं हैं. इस प्रकार इंजीनियर बनाने के ये कारखाने चल पड़ें हैं. अब सवाल ये है की ये तैयार इंजीनियरों की फसल कैसी होगी? और ये देश के विकास में क्या योगदान कर पायेंगे? ये कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका उत्तर भले ही हमारी व्यवस्था के पास ना हो लेकिन इन्हें नजर अंदाज कर पाना भी इतना आसान नहीं होगा. कल जब ये इंजीनियर देश की मुख्या धारा मेंशामिल होंगे तो क्या करेंगे. अगर इनके बनाए पुल गिरने लगे, पटरियां उखड़ने लगें और घर जान लेने लगें तो... दोष किसके सर मढ़ा जाएगा. इस व्यवस्था को या फिर जनता की किस्मत को जो इसकी शिकार बनेगी.